बहार आते ही दामान-ओ-गिरेबाँ जाग उठते हैं गुलिस्ताँ करवटें लेते हैं ज़िंदाँ जाग उठते हैं जुनूँ-अफ़रोज़ जब गेसू-ए-जानाँ जाग उठते हैं ख़िरद की गोद में ख़्वाब-ए-परेशाँ जाग उठते हैं कभी जब दिल में उठती हैं किसी की याद की मौजें तो ख़्वाबीदा तमन्नाओं के तूफ़ाँ जाग उठते हैं दमकती हैं किसी के लब पे जब किरनें तबस्सुम की फ़ज़ाएँ चौंक जाती हैं गुलिस्ताँ जाग उठते हैं ग़म-ए-जानाँ से ढलता है ग़म-ए-दौराँ का आईना ये वो क़ालिब है जिस में क़ल्ब-ए-इंसाँ जाग उठते हैं कभी अंगड़ाइयाँ लेती हैं जब वो नग़मगी नज़रें नुजूम-ओ-माह के साज़-ए-ग़ज़ल-ख़्वाँ जाग उठते हैं मिरी हर साँस की लौ इर्तिक़ा की लय ही गाती है तिरी आहट से नग़्मात-ए-रग-ए-जाँ जाग उठते हैं कोई ग़म हो 'शिफ़ा' फ़ितरत का इक इनआ'म होता है कि इस से ज़िंदगी के सारे इम्काँ जाग उठते हैं