ले के दिल मेहर से फिर रस्म-ए-जफ़ा-कारी क्या तुम दिल-आराम हो करते हो दिल-आज़ारी क्या तुम से जो हो सो करो हम नहीं होने के ख़फ़ा कुछ हमें और से करनी है नई यारी क्या जूँ हुबाब आए हैं मिलने को न हो चीं-ब-जबीं हम से इक दम के लिए करते हो बे-ज़ारी क्या तेग़-ए-अबरू की तो उल्फ़त ने किया दिल को दो-नीम देखें अब करती है काकुल की गिरफ़्तारी क्या फिर सिनाँ मिज़्ज़ा-ए-दिल पर वो उठाता है 'नज़ीर' ज़ख़्म-ए-शमशीर-ए-निगह आह नहीं कारी क्या