लाई थी ख़ल्वत से दिल की ना-शकेबाई मुझे बज़्म में भी है वही एहसास-ए-तन्हाई मुझे लज़्ज़त-ए-ज़ख़्म-ए-तमन्ना से हूँ सरगर्म-ए-सफ़र वर्ना कब मंज़ूर थी ये जादा-पैमाई मुझे मंज़र-ए-बर्बादी-ए-दिल पर तो नम-दीदा था मैं लोग दिखलाते रहे चेहरों की ज़ेबाई मुझे सुन रहा हूँ देर से अपनी सदा-ए-बाज़गश्त आरज़ू का शहर है सहरा-ए-तन्हाई मुझे ज़िंदगी के दश्त-ओ-दर में आरज़ू की राह से ले गई दार-ओ-रसन तक आबला-पाई मुझे