लिबास-ए-ख़ाक सही पर कहीं ज़रूर हूँ मैं बता रही है चमक आँख की कि नूर हूँ मैं कोई नहीं जो मिरी लौ से रास्ता देखे हवा-ए-तुंद बुझा दे तिरे हुज़ूर हूँ मैं पनाह देता नहीं कोई और सय्यारा भटक रहा हूँ ख़ला में ज़मीं से दूर हूँ मैं न हो गिरा के मुझे तू भी ख़ाक में मिल जाए मुझे गले से लगा ले तिरा ग़ुरूर हूँ मैं निकल पड़ा हूँ यूँही इतनी बर्फ़-बारी में बदन के गर्म लहू का अजब सुरूर हूँ मैं सज़ा भी काट चुका हूँ मैं जिस ख़ता की 'नसीम' किसे पुकारूँ कहूँ इस में बे-क़ुसूर हूँ मैं