लिखना है सर-गुज़श्त क़लम नाज़ से उठा हर नुक़्ता-ए-हयात को आग़ाज़ से उठा हर मा-सिवा के ख़ौफ़ को जिस ने मिटा दिया ना'रा वो ला-तज़र का मेरे साज़ से उठा जो भी भरम था चाँद-सितारों का खुल गया पर्दा कुछ ऐसा जुरअत-ए-पर्वाज़ से उठा वो शोर जिस से अज़्मत-ए-शाही लरज़ गई तबरेज़-ओ-क़ुम से मशहद-ओ-शीराज़ से उठा अफ़्सुर्दा अंजुमन है फ़सुर्दा हैं अहल-ए-दिल ये कौन आज जल्वा-गह-ए-नाज़ से उठा ये नौनिहाल-ए-बाग़-ए-तमन्ना के फूल हैं आग़ोश-ए-दिल में इन को ज़रा नाज़ से उठा मर जाऊँगा तो लोग कहेंगे यही 'जमील' इक मर्द-ए-हक़ की लाश है एज़ाज़ से उठा