मिरे दुख दर्द हर इक आँख से ओझल पड़े थे शुक्र-सद-शुक्र कि बस रूह पे ही बल पड़े थे किसी मक़्सद से तिरे पास नहीं आए हैं कहीं जाना ही था सो तेरी तरफ़ चल पड़े थे एक मैं ही नहीं शब छत पे बसर करता था चाँद के पीछे कई और भी पागल पड़े थे कैसा नज़्ज़ारा था कोहसारों की शहज़ादी का बाम पर वो खड़ी थी फ़र्श पे बादल पड़े थे जल्द-बाज़ों ने बिछड़ने में बड़ी उजलत की एक इक मसअले के वर्ना कई हल पड़े थे ख़ुद से ख़ुद तक का सफ़र सहल नहीं था इतना रास्ते में कई दरिया कई जंगल पड़े थे इज्ज़ के अश्क बहाते हुए शब सो गया मैं सुब्ह उट्ठा तो मिरे काम मुकम्मल पड़े थे ध्यान तय्यारी का आया ही नहीं हम को 'अक़ील' सफ़र-ए-इश्क़ था बे-रख़्त-ए-सफ़र चल पड़े थे