लिल्लाहिल-हम्द कि दिल शोला-फ़िशाँ है अब तक पीर है जिस्म मगर तब्अ जवाँ है अब तक बर्फ़-बारी है मह ओ साल की सर पर लेकिन ख़ून में गर्मी-ए-पहलु-ए-बुताँ है अब तक सर पे हर चंद मह ओ साल का ग़लताँ है ग़ुबार फ़िक्र में ताब-ओ-तब-ए-काहकशाँ है अब तक कब से नब्ज़ों में वो झंकार नहीं है फिर भी शेर में ज़मज़म-ए-आब-ए-रवाँ है अब तक लिल्लाहिल-हम्द कि दरबार-ए-ख़राबात की ख़ाक सुर्मा-ए-दीदा-ए-साहेब-नज़राँ है अब तक ज़िंदगी कब से है काँटों की तिजारत से फ़िगार फिर भी तख़्ईल में फूलों की दुकाँ है अब तक फ़र्क़ पर वक़्त का पथराओ है कब से जारी ज़ेहन में कारगह-ए-शीशागराँ है अब तक किस से कहिए कि ब-ईं फ़िक्र मिरा तार-ए-वजूद ज़ख़्मा-ए-ग़ैब से लर्ज़ां ओ तपाँ है अब तक कब से हूँ मुनकिर-ए-गुल्बाँग-ए-मलाएक फिर भी दिल पे जिबरील की दस्तक का गुमाँ है अब तक कब से हूँ बस्ता-ए-नाक़ूस-ओ-मज़ामीर-ए-बुताँ फिर भी सीने में कोई गर्म-अज़ाँ है अब तक सख़्त हैराँ हूँ कि इस कुफ़्र के जंगल में भी 'जोश' चश्म-ए-यज़्दाँ मिरी जानिब निगराँ है अब तक