लुटने वालों का मदद-गार नहीं है कोई इस क़बीले का भी सरदार नहीं है कोई मैं वो महरूम-ए-तमन्ना हूँ कि जिस की ख़ातिर भरी बस्ती में अज़ादार नहीं है कोई शाह-ज़ादी तिरी आँखों में ये दहशत कैसी फूल हैं हाथ में तलवार नहीं है कोई दिल किसी वक़्त किसी पर भी फ़िदा हो जाए ये वो कश्ती है कि पतवार नहीं है कोई आँख में अश्क नहीं हैं तो यही लगता है इक सितारा भी नुमूदार नहीं है कोई मुझ को इस बात से आता है बहुत ख़ौफ़ यहाँ सब फ़रिश्ते हैं गुनहगार नहीं है कोई देख ये ज़ख़्म तराशे हुए लगते हैं तुझे तू समझता है मिरा यार नहीं है कोई इक ख़ला और बहुत गहरा ख़ला है 'साहिर' देख आया हूँ मैं उस पार नहीं है कोई