लुत्फ़ दुनिया तो फ़क़त दीदा-ए-नमनाक में है शैख़ साहब की नज़र आज भी अफ़्लाक में है जिस ने ता'मीर किया मुझ को लहू हाथों से ख़ाक हो जाऊँ कि वो शख़्स भी अब ख़ाक में है मुझ को मजबूर किया है मिरी मजबूरी ने आज भी मेरी अना काग़ज़ी पोशाक में है मैं जो बीमार हुआ उस ने अयादत की है ख़ू-ए-रहमत भी उसी क़ातिल-ए-सफ़्फ़ाक में है ऐ दिल-ए-हिज्र-ज़दा मुझ को न रुस्वा करना शर्म थोड़ी सी अभी लहजा-ए-बेबाक में है मेरी रुस्वाई में शामिल नहीं मेरे चेहरे हाकिम-ए-शहर मगर आज भी इस ताक में है शहर-ए-बे-मेहर में ज़िंदा था फ़क़त मैं 'साहिल' मेरे एहसास का क़ातिल मिरी पोशाक में है