लुत्फ़ से तेरे सिवा दर्द महक जाता है ये वो शो'ला है बुझाओ तो भड़क जाता है इक ज़माने को रखा तेरे तअल्लुक़ से अज़ीज़ सिलसिला दिल का बहुत दूर तलक जाता है तुम मिरे साथ चले हो तो मिरे साथ रहो कि मुसाफ़िर सर-ए-मंज़िल भी भटक जाता है हम तो वो हैं तिरे वा'दे पे भी जी सकते हैं ग़ुंचा पैग़ाम-ए-सबा से भी चटक जाता है मस्ती-ए-शौक़ सँभलने नहीं देती 'इश्क़ी' जाम लब तक नहीं आता कि छलक जाता है