मा-सिवा दर्द के तुम और मुझे क्या दोगे साथ तो दे न सके ख़ाक सहारा दोगे हो के नादिम बड़ी मुद्दत में तो आए हो मियाँ फिर वो गुज़रे हुए दिन क्या मुझे लौटा दोगे ज़ख़्म-ए-दिल और हरे हो गए तुम आए क्यों मैं ने समझा था मुसीबत में सहारा दोगे ऐसी तन्हाई से तो मौत है बेहतर जानाँ तुम अज़िय्यत के सिवा और भला क्या दोगे दे के तुम तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ की सनद दुनिया को क्या पता शहर-ए-ख़मोशाँ के अलावा दोगे एक एहसान करो मुझ पे ये जाते जाते फिर न मिलने का मुझे कोई दिलासा दोगे तुम मिरे सर की क़सम खा के कहो जान-ए-वफ़ा क्या कभी इस दिल-ए-बे-कल को भी समझा दोगे हम तिरे बाद भी ज़िंदा-ओ-सलामत हैं अभी तुम ने समझा कि हमें छोड़ के दिखला दोगे इश्क़ करना भी कोई खेल कहाँ है 'तारिक़' आतिश-ए-इश्क़ में तुम ख़ुद को ही पिघला दोगे