ख़ूबसूरत तो न था दिलकश मगर चेहरा लगा माँ की आँखों में जो देखा चाँद का टुकड़ा लगा पहले वो बद-रंग सा इक काँच का टुकड़ा लगा हाथ में तुम ने लिया तो आइना अच्छा लगा जिस का जी करता है आ जाता है वो हँसता हुआ किस क़दर आसान मेरे दिल का दरवाज़ा लगा दूरियाँ सारी सिमट कर आ गईं दालान तक वो परी-रुख़ यक-ब-यक सीने से मेरे आ लगा शहर के लोगों के अंदर थी बहुत अपनाइयत गो कि हर चेहरा था बेगाना मगर अपना लगा प्यार से डाली नज़र जब माँ के चेहरे की तरफ़ झुर्रियों से पुर वो चेहरा किस क़दर प्यारा लगा मुद्दई ख़ुश थे सज़ा-ए-मौत पर 'तारिक़' मगर क्यों मुझे मुंसिफ़ का चेहरा इतना अफ़्सुर्दा लगा