माह ओ अंजुम की रौशनी गुम है क्या हर इक बज़्म से ख़ुशी गुम है चाँद धुँदला है चाँदनी गुम है हुस्न वालों में दिल-कशी गुम है ज़िंदगी गुम न दोस्ती गुम है ये हक़ीक़त है आदमी गुम है इस तरक़्क़ी को और क्या कहिए शहर से सिद्क़ की गली गुम है फूल लाखों हैं सेहन-ए-गुलशन में उन की होंटों की गो हँसी गुम है मेहनत-ए-बाग़-बाँ का ज़िक्र नहीं ग़ुल है फूलों से दिल-कशी गुम है है तरक़्क़ी नए अदब की ये शेर से हुस्न-ए-शाएरी गुम है ग़म बताओ 'कँवल' कहाँ ढूँडूँ बज़्म-ए-आलम से दोस्ती गुम है