मआल-ए-दोस्ती कहिए हदीस-ए-मह-वशाँ कहिए मिले दिल से ज़रा फ़ुर्सत तो दिल की दास्ताँ कहिए मगर इस ख़ामुशी से अहल-ए-दिल का कुछ भरम तो है जो कुछ कहिए तो सारी उम्र की महरूमियाँ कहिए ग़म-ए-दिल अव्वलीं दौर-ए-तमन्ना की अमानत है नवेद-ए-ऐश अगर सुनिए नसीब-ए-दुश्मनाँ कहिए जो रख ले ख़स्तगी की शर्म ऐसी बर्क़ रहमत है गिरे जो आशियाँ से दूर उस को बे-अमाँ कहिए हमारा क्या है नासेह हम उसे ना-मेहरबाँ कह दें पर ऐसा भी तो हो कोई कि जिस को मेहरबाँ कहिए किसी से भी न कहिए हाल-ए-दिल बे-मेहर दुनिया में यहाँ सब कुछ ब-अंदाज़-ए-हदीस-ए-दीगराँ कहिए बस अब उठिए कि नंग-ए-पुर्सिश-ए-बेजा क़यामत है कहाँ तक एक इक बे-नाम से नाम-ओ-निशाँ कहिए