मचलती हैं मचलती हैं मचल कर डूब जाती हैं तिरी यादें मिरे ग़म को ग़ज़ल कर डूब जाती हैं कहीं से भी नहीं मिटती तमन्नाएँ वो आख़िर में दो आँखों के किनारों से निकल कर डूब जाती हैं कभी देखा है तुम ने मछलियों को ख़ुद-कुशी करते वो साहिल पे समुंदर से उछल कर डूब जाती हैं समुंदर में जो गिर जाएँ हमारी प्यास की बूँदें तो वो चुप-चाप गौहर में बदल कर डूब जाती हैं