तिरी निगाह में इक शक्ल दे रहा है मुझे मिरा ही अक्स मिरी नक़्ल दे रहा है मुझे मैं एक तीसरी दुनिया में मुब्तला हूँ कहीं तू दो-जहाँ की कहाँ अक़्ल दे रहा है मुझे मैं इक ख़याल के सहरा की प्यास हूँ जैसे कोई सराब तिरी शक्ल दे रहा है मुझे ज़मीन-ए-दिल पे मुक़द्दर ने हिज्र बोया था जो ग़म की रोज़ नई फ़स्ल दे रहा है मुझे तिरे ख़याल पस-ए-रूह ले गए मुझ को ये जिस्म फिर भी वहाँ दख़्ल दे रहा है मुझे गुज़र ही जाएगी हर शय यही हक़ीक़त है वो ये दलील पस-ए-क़त्ल दे रहा है मुझे ये 'अर्श' ज़ुल्म है तन्हाई के मुसाफ़िर पर ये चाँद ख़्वाब-ए-शब-ए-वस्ल दे रहा है मुझे