महकती आँखों में सोचा था ख़्वाब उतरेंगे पता न था कि यहाँ भी अज़ाब उतरेंगे फ़रेब खाएगी हर बार मेरी तिश्ना-लबी बदन के दश्त पे जब जब सराब उतरेंगे मिरी लहद पे न रौशन करे चराग़ कोई ये वो जगह है जहाँ आफ़्ताब उतरेंगे सफ़ेद-पोशों की कब तक छुपेंगी करतूतें कि धीरे धीरे सभी के नक़ाब उतरेंगे नज़र जमाए हैं दहलीज़-ए-इंतिज़ार पे हम फ़राज़-ए-काबा से इज़्ज़त-मआब उतरेंगे गुनाह लगती है उल्फ़त तुम्हें तो लगने दो ये वो गुनाह है जिस पर सवाब उतरेंगे तमाम होगी तभी तो किताब-ए-ज़ीस्त 'रज़ा' ग़म-ए-हयात के जब इंतिसाब उतरेंगे