महमिल है मतलूब न लैला माँगता है चाक-गिरेबाँ क़ैस तो सहरा माँगता है हिज्र सर-ए-वीराना-ए-जाँ भी मोहर-ब-लब वस्ल गली-कूचों में चर्चा माँगता है इस आईना-ख़ाने का हर रक़्स-कुनाँ अपने सामने अपना तमाशा माँगता है ना-उम्मीदी लाख क़फ़स ईजाद करे ताइर-ए-दिल परवाज़-ए-तमन्ना माँगता है उम्र बिताता है इमरोज़ में और मकीं दरवाज़े पर दस्तक-ए-फ़र्दा माँगता है धूप जवानी का याराना अपनी जगह थक जाता है जिस्म तो साया माँगता है बाँध सग-ए-आवारा चौखट के अंदर एक मुसाफ़िर तुझ से रस्ता माँगता है लोग तवालत से घबराते हैं वर्ना एक ज़माना सीधा रस्ता माँगता है