रात ख़ुद पर रो रही है सुब्ह शायद हो रही है तू उसे आ कर जगा जा हसरत-ए-दिल सो रही है किस की आमद है जो कब से चाँदनी घर धो रही है तुख़्म-ए-तन्हाई मोहब्बत किश्त-ए-दिल में बो रही है बे-सबब कब थी उदासी वज्ह भी कुछ तो रही है उन से कह पाई कहाँ मैं बात दिल में जो रही है जाने क्यूँ दिल है परेशाँ जाने क्या शय खो रही है