माहौल है अजीब मिरे आस-पास का हर शख़्स है शिकार जो ख़ौफ़-ओ-हिरास का अपने वजूद की भी हक़ीक़त न पा सका मरकज़ हूँ दाएरे का मैं या नुक़्ता रास का क्या क्या ये मरहले हैं अभी मेरे सामने हर दम रहा है साथ मुझे ग़म का यास का वो सुर्ख़-रू लगे है यूँ उजले लिबास में इक जल रहा हो जैसे कि जंगल कपास का वो कौन है जिसे न हो ख़ुशबू की आरज़ू हर शख़्स पास रखता है आईना आस का हर चंद गो कि मैं तो नहीं उस से मुतमइन लेकिन असर हुआ है मिरे इल्तिमास का अक़दार-ए-इल्म-ओ-फ़ह्म का ये दौर ही नहीं 'आज़िम' ये दौर आज का है ख़ुश-लिबास का