दरून-ए-इश्क़ अजब ताना-बाना बनता है ज़रा सी बात का कितना फ़साना बनता है मियाँ ये शाख़-ए-मोहब्बत तुम्हारे सामने है बनाओ उस पे अगर आशियाना बनता है हमारे दर्द पड़े हैं चहार सम्त यहाँ सो मुस्कुराओ यहाँ मुस्कुराना बनता है छुपाए फिरता हूँ आँखों में अश्क के मोती कि जम्अ' करने से दौलत ख़ज़ाना बनता है ये दश्त है यहाँ दीवानगी ज़रूरी है हर एक शख़्स जुनूँ का निशाना बनता है मिरी वफ़ाओं को अब ए'तिबार हासिल है सो उस के घर में मिरा आना-जाना बनता है तुम्हारे जैसी है उस के मिज़ाज में शोख़ी ये रंग मेरी नज़र में उड़ाना बनता है उसे बताते हैं 'ग़ालिब' के रिश्ता-दार हैं हम हमारे सामने जो भी 'यगाना' बनता है रही हों पाँच छे पुश्तें दरून-ए-दश्त तभी मिरे अज़ीज़ जुनूँ का घराना बनता है