माहौल तीरगी का मुक़द्दर बढ़ा गया घर का चराग़ घर के उजाले को खा गया देखा है हम ने जलने लगी हैं वो बस्तियाँ जिन बस्तियों से हो के कोई रहनुमा गया इंसानियत ग़रीब भटकती है दर-ब-दर हर शख़्स अपने ख़ौल-ए-अना में समा गया हम ने पिलाया ख़ून हर इक इंक़लाब को हम को ही इंक़लाब का दुश्मन कहा गया 'रहबर' ये ज़िंदगी थी बहुत मो'तबर मगर मेरा वजूद मुझ को तमाशा बना गया