महव-ए-ज़ारी तो रखा दिल की लगी ने शब-भर

महव-ए-ज़ारी तो रखा दिल की लगी ने शब-भर
लेकिन आँसू भी जो पोंछे तो उसी ने शब-भर

ये मिरे दिल की चमक है कि तिरी आँख का नूर
ज़ेहन में नाचते रहते हैं नगीने शब-भर

रूहें दम-साज़ हैं तो जिस्म भी हमराज़ बनें
यूँ तो तड़पेंगे ये जलते हुए सीने शब-भर

अजनबी जान के डरते रहे सब दरवाज़े
मेरी आवाज़ न पहचानी किसी ने शब-भर

दिल के बेताब समुंदर में तमन्ना बन कर
डूबते तैरते रहते हैं सफ़ीने शब-भर

उस के बाम-फ़लक-आसार की तस्वीर में गुम
मेरी तख़्ईल बनाती रही ज़ीने शब-भर

जहाँ बेदारियाँ बैठी हैं मुहाफ़िज़ बन कर
हम ने ख़्वाबों में निकाले वो दफ़ीने शब-भर

आँख उठा कर भी नहीं देखता अब दिन में जिसे
कितना बेचैन रखा मुझ को उसी ने शब-भर

शे'र ही कहिए कि शायद मिले तस्कीन 'अंजुम'
यूँ तो ये चाँदनी देगी नहीं जीने शब-भर


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