महबूब सा अंदाज़-ए-बयाँ बे-अदबी है मंसूर इसी जुर्म में गर्दन-ज़दनी है ख़ुद अपने ही चेहरे का तअय्युन नहीं होता हालाँकि मिरा काम ही आईना-गरी है आने दो अभी जुब्बा ओ दस्तार पे पत्थर कुछ काबा-नशीनों में अभी बू-लहबी है ख़ाली ही रहा दीदा-ए-पुर-शौक़ का दामन अँधों की अक़ीदत में वसी-उन-नज़री है हर पाँव से उलझा हूँ कटी डोर के मानिंद 'तारिक़' मिरी क़िस्मत की पतंग जब से कटी है