फ़ज़ा का हब्स चीरती हुई हवा उठे सफ़र में धूप है बहुत कोई घटा उठे फिराए जिस्म पर मिरे वो उँगलियाँ ऐसे कि साज़-ए-रूह मेरा आज झनझना उठे जो और कुछ नहीं तो जुगनुओं को कर रक़्साँ स्याह शब ज़रा ज़रा सी जगमगा उठे मिरी तरह तमाम लोग बे-ज़बाँ तो नहीं किसी तरफ़ किसी जगह से मसअला उठे मिरा फ़ुतूर ख़ुद सदाएँ दे मुझे मंज़िल क़दम को चूमने मिरे ये रास्ता उठे न जाने सोहबतों में इस की कैसा है नशा कि दर से हर इक शख़्स झूमता उठे करो तो ज़िंदगी में ऐसा कुछ करो 'सौरभ' मिरी नज़र में तेरा यार मर्तबा उठे