माह-ए-कामिल हो मुक़ाबिल यार के रू से चे-ख़ुश ख़म हो दम मारे हिलाल उस तेग़-ए-अबरू से चे-ख़ुश इक झलक भी यार की शोख़ी की तुझ में नहीं ऐ बर्क़ तिसपे हम-सर हो तो उस की तुंदी-ए-ख़ू से चे-ख़ुश उस की जौलाँ की हवा से गई है बर्बाद और उस पर मुद्दई है निकहत-ए-गुल यार की बू से चे-ख़ुश आँख में हिरनों की ख़ाक-अफ़्गन है उस की गर्द-ए-राह तिसपे गर्दन-कश हैं पी के चश्म-ए-जादू से चे-ख़ुश गरचे सुम्बुल है ऐ 'उज़लत' तीरा-बख़्त और दाग़-ए-रश्क पेच-ओ-ख़म खा कर है सरकश पी के गेसू से चे-ख़ुश