माह-ए-ताबाँ तिरी तस्वीर बनाते हुए थे दिल से पैवस्त कोई तीर बनाते हुए थे लोग जिस दश्त में शमशीर बनाते हुए थे हम वहाँ लहन-ए-मज़ामीर बनाते हुए थे और क्या ख़ाक पे अंगुश्त से ख़त खींचते थे किश्त-ए-दिल-गीर को कश्मीर बनाते हुए थे खारे पानी से किया करते थे बिल्लोर कशीद दाना-ए-शोर से इक्सीर बनाते हुए थे ज़ख़्म हम ने कभी आलूदा-ए-मरहम न किया हिज्र को वस्ल की ता'बीर बनाते हुए थे चाँद बादल से निकलता कभी छुपता था उधर हम इधर ख़्वाब की तस्वीर बनाते हुए थे जिस्म के लोथड़े मलबों में उधर ढूँडते थे और इधर इक नई ता'मीर बनाते हुए थे यूँ कोई दश्त-ए-सुख़न का कहीं होता है 'असद' हाँ मगर इश्क़ को जो 'मीर' बनाते हुए थे