महफ़िल में गो कि ज़मज़मा-ख़्वानी है और बस मेरी नज़र में अश्क-फ़िशानी है और बस चेहरे नए नए हैं दयार-ए-हरीस में लेकिन गली तुम्हारी पुरानी है और बस तेरे बग़ैर दिन भी गुज़ारा है ईद का अपनी कहाँ ये शाम सुहानी है और बस मुझ को तो शहर-भर में कोई जानता नहीं तेरी हर एक लब पे कहानी है और बस ख़त तो जला दिए हैं मगर इक अंगुश्तरी अब आख़िरी ये उस की निशानी है और बस तू ने बना लिए हैं बहुत हम-सफ़र यहाँ 'तन्हा' मगर ये मेरी जवानी है ओर बस