महफ़िल से आख़िर उस की निकलवाए जाएँगे

महफ़िल से आख़िर उस की निकलवाए जाएँगे
शेख़ी से जा तो बैठे थे इक बार अनक़रीब

वहशत भरे हुए मिरे तेवर को देख कर
आता नहीं है अब कोई ग़म-ख़्वार अनक़रीब

वो दिन गए जुनूँ के मुदावा के वास्ते
दो-चार रोज़ बैठे तो दो-चार अनक़रीब

जिंस-ए-वफ़ा की क़द्र गर इज़हार कीजिए
कहता है मुझ को याँ से है बाज़ार अनक़रीब

ऐ बद-सलीक़ा ये भी क़रीना है बज़्म का
उश्शाक़ दूर बैठें और अग़्यार अनक़रीब

ले अपने आशियाँ की ख़बर जल्द जिब्रईल
पहूँची हमारी आह-ए-शरर-बार अनक़रीब

दूरी 'शहीदी' अपनी समझ का क़ुसूर था
है शह-रग-ए-गुलू से भी याँ यार अनक़रीब


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