क्या वक़्त-ए-सहर हौसला बाक़ी हो दुआ का जब कर के दुआ देखते हों रू-ए-सहर हम तू चाँद से बेहतर है कि रौनक़ तिरे मुँह पर पाते हैं फ़ुज़ूँ शाम से भी वक़्त-ए-सहर हम बन-ठन के हो वो रश्क-ए-परी सामने जिस दम क्यों ग़श हमें आ जाए न आख़िर हैं बशर हम दरबानों की शफ़क़त से रिहाई नहीं होती बरसों में किसी दिन उसे पाते हैं अगर हम हर वज़्अ के इंसाँ से मुलाक़ात है उन को सब ख़ल्क़ मुदारात के क़ाबिल है मगर हम जाते किधर आतिश-कदा-ए-इश्क़ से उड़ कर मानिंद समुंदर के अगर रखते भी पर हम अब चैन से सोना तह-ए-अफ़्लाक हमेशा ऐ अहल-ए-ज़मीं मुज़्दा हो तुम को गए मर हम देखे हैं मगर बिखरे हुए बाल किसी के कुछ आज 'शहीदी' का अजब हाल है दरहम