माह-ओ-अंजुम कहकशाँ के आशियानों से परे आख़िरी मंज़िल है मेरी आसमानों से परे ऐसे आलम में हक़ीक़त का हो कैसे इंकिशाफ़ वो अभी पहुँचे नहीं हैं दास्तानों से परे एक तूफ़ाँ से दिलों की कश्तियाँ हैं मुंतशिर एक तूफ़ाँ मुंतज़िर है बादबानों से परे आप अपनी अम्बरीं ज़ुल्फ़ें हवा में खोल दें ख़ुशबुएँ तो जा चुकी हैं गुलिस्तानों से परे ख़स्तगी से जिन की क़ाएम है मोहब्बत शहर में कुछ मकाँ ऐसे भी हैं ऊँचे मकानों से परे नस्ल-ए-आदम के सभी अफ़राद हैं इस में शरीक ये जहाँ इक ख़ानदाँ है ख़ानदानों से परे आओ हम 'असरार' देखें क्या वहाँ है ख़ास मोड़ उठ रही है गर्द सी कुछ कारवानों से परे