मह-ओ-पर्वीं तह-ए-कमंद रहे किन फ़ज़ाओं में हम बुलंद रहे ग़म-ए-हस्ती से बे-नियाज़ सही अहल-ए-दिल फिर भी दर्द-मंद रहे चश्म-ए-उक़्दा-कुशा से भी न खुले हम कुछ इस तरह बंद बंद रहे बर-सर-ए-दार हम सही लेकिन हर्फ़-ए-हक़ की तरह बुलंद रहे हुस्न की ख़ुद-नुमाईयाँ तौबा मुद्दतों हम भी ख़ुद-पसंद रहे मय-ओ-मस्ती नहीं है उस पे हराम मय-कदे में जो होश-मंद रहे हम हैं रहबर से दो क़दम आगे हौसले शौक़ से दो-चंद रहे दुश्मनों का गिला नहीं 'ताबिश' दोस्त भी दरपय-ए-गज़ंद रहे