महरूमी-ए-हयात कहीं है कहीं नहीं ग़म की उदास रात कहीं है कहीं नहीं रोज़-ए-अज़ल से मरहला-ए-मर्ग-ओ-ज़ीस्त है अपनी ही एक ज़ात कहीं है कहीं नहीं अफ़्सुर्दगी-ओ-ज़िंदा-दिली के हुजूम में ये पूरी काएनात कहीं है कहीं नहीं पेश-ए-नज़र है वुसअत-ए-अर्ज़-ओ-समा मगर क़ैद-ए-तअ'य्युनात कहीं है कहीं नहीं हर-चंद दिल वजूद-ए-वफ़ा पर है मुतमइन लेकिन वो एक बात कहीं है कहीं नहीं 'अह्मर' है यूँ तो सब पे किसी की नज़र मगर वो चश्म-ए-इल्तिफ़ात कहीं है कहीं नहीं