महरूमियों का ख़ौफ़ नहीं है ज़रा मुझे पहचानती है शहर की आब-ओ-हवा मुझे इक उम्र इस सफ़र में गुज़रने के बावजूद क्यों अजनबी सा लगता है हर रास्ता मुझे बेजा अना तबाही का किरदार बन गई ख़ुद-साख़्ता ग़ुरूर ने रुस्वा किया मुझे कोताहियों का दख़्ल है मेरी शिकस्त में नाकामियों ने राज़ ये समझा दिया मुझे हर चंद सामने थी मिरे मंज़िल-ए-यक़ीं लेकिन ग़लत क़यास ने भटका दिया मुझे अब सारा शहर मेरा ख़रीदार बन गया इतना मिरे ख़ुलूस ने सस्ता किया मुझे लिख दी अमीर-ए-शहर ने दस्तूर में ये बात मुजरिम हो कोई और मिलेगी सज़ा मुझे होने लगे थे मुझ से गुरेज़ाँ तमाम लोग घबरा के तोड़ना ही पड़ा आइना मुझे यूँ तो 'सिराज' उस की मोहब्बत में है फ़रेब लेकिन उसी निगाह ने अच्छा किया मुझे