महरूमियों का मुझ को जो आदी बना दिया मैं पूछता हूँ तुझ से दिया भी तो क्या दिया हाँ ऐ हुजूम-ए-अश्क ये अच्छा नहीं हुआ तू ने हमारे ज़ब्त का रुत्बा घटा दिया कैसे अमाँ मिलेगी हमें तेज़ धूप से सूरज ने हर दरख़्त का साया जला दिया इक अजनबी की बात में जादू का था असर पत्थर दिलों में दर्द-ए-मोहब्बत जगा दिया जब अपने साथ साथ था ख़ुश-हाल था बहुत ख़ुद से बिछड़ के ख़ुद को गदागर बना दिया कल रात तेरे वादे का भी खुल गया भरम ज़ख़्मों को हँसते देख के मैं मुस्कुरा दिया रंगीनी-ए-बहार के हम मुंतज़िर हैं क्यूँ बाद-ए-ख़िज़ाँ ने रंग-ए-गुलिस्ताँ उड़ा दिया दिल का चराग़ ख़ुद ही जलाया कभी 'सदफ़' और ख़ुद ही उस चराग़ को आख़िर बुझा दिया