महशर-ए-हिज्र तिरा सूरत-ए-ख़स सामने है इक बरस बीत गया एक बरस सामने है सूरत-ए-इश्वा-ए-ख़ाशाक है आवारा वजूद क्या सँभल पाएगा दरिया-ए-हवस सामने है हर्फ़-ए-शर्त आता है जब तेरी ज़बाँ पर सर-ए-शाम ऐसा लगता है कि इक और क़फ़स सामने है जाने किस वक़्त ये उड़ कर मिरे दिल तक पहुँचे मंज़िलें दूर हैं आज़ार-ए-जरस सामने है इस का होना भी न होने की तरह है 'आफ़ाक़' इस तरह है वो मिरे सामने बस सामने है