वो ख़्वाब तलबगार-ए-तमाशा भी नहीं है कहते हैं किसी ने उसे देखा भी नहीं है पहली सी वो ख़ुशबू-ए-तमन्ना भी नहीं है इस बार कोई ख़ौफ़ हवा का भी नहीं है उस चाँद की अंगड़ाई से रौशन हैं दर ओ बाम जो पर्दा-ए-शब-रंग पे उभरा भी नहीं है कहते हैं कि उठने को है अब रस्म-ए-मोहब्बत और इस के सिवा कोई तमाशा भी नहीं है इस शहर की पहचान थीं वो फूल सी आँखें अब यूँ है कि उन आँखों का चर्चा भी नहीं है क्यूँ बाम पे आवाज़ों का धम्माल है 'अजमल' इस घर पे तो आसेब का साया भी नहीं है