महसूस क्यूँ न हो मुझे बेगानगी बहुत मैं भी तो इस दयार में हूँ अजनबी बहुत आसाँ नहीं है कश्मकश-ए-ज़ात का सफ़र है आगही के बा'द ग़म-ए-आगही बहुत हर शख़्स पुर-ख़ुलूस है हर शख़्स बा-वफ़ा आती है अपनी सादा दिली पर हँसी बहुत उस जान-ए-जाँ से क़त-ए-तअल्लुक़ के बावजूद उस रहगुज़र में आज भी है दिलकशी बहुत इस वज़-ए-एहतियात की ज़ंजीर के लिए मैं ने भी की है शहर में आवारगी बहुत मस्ताना-वार वादी-ए-ग़म तय करो 'सहर' बाक़ी हैं ज़िंदगी के तक़ाज़े अभी बहुत