महताब गुल-बहार है बदली कपास है ये आसमाँ ज़मीं का कोई इक़्तिबास है वो लाख ख़्वाब-नाक सही ख़्वाब भी नहीं गरचे वो है सराब मगर आस-पास है बैठा हुआ हूँ लग के दरीचे से महव-ए-यास ये शाम आज मेरे बराबर उदास है इक इश्क़ की हवस जो बहुत इश्क़ सा न हो इक रम्ज़ की कशिश जो क़रीन-ए-क़यास है इक मोर-पंख तक नहीं सूनी डगर पे 'अर्श' दिल बाद-ए-रक़्स-ए-गिर्या बहुत बे-असास है