मैं अब माज़ी का हर सपना सुहाना भूल जाता हूँ मिरी जानाँ तिरा मिलना-मिलाना भूल जाता हूँ वो मेरा दोस्त था अब दुश्मन-ए-जाँ बन गया है जब मैं उस को देख कर अपना निशाना भूल जाता हूँ जो कल तक यार था मेरा मगर अब ग़ैर है यारो तभी तो उस से अब दिल का लगाना भूल जाता हूँ कभी जिस ने दिया था दर्द मुझ को राह-ए-उल्फ़त में वो दर्द-ए-दिल मिरी जानाँ पुराना भूल जाता हूँ लिखा था शाइर-ए-मशरिक़ ने अपने ख़ून से जिस को अजब हालात हैं अब वो तराना भूल जाता हूँ दरीचा बंद रहता है अब उस के घर का ऐ 'साजिद' मैं अब महबूब के कूचे में जाना भूल जाता हूँ