मैं अँधेरों के नगर से भी गुज़र आया तो क्या बुझ गईं आँखें मिरी वो अब नज़र आया तो क्या खो गए दिन के उजालों में मिरे ख़्वाबों के चाँद अर्श से अब चाँद भी कोई उतर आया तो क्या मैं तो इक गहरे समुंदर में उतर जाने को हूँ तू ख़िराज-ए-अश्क ले कर अब अगर आया तो क्या घर से आने वाले तीरों का निशाना बन गया मैं मुक़ाबिल ग़ैर के सीना-सिपर आया तो क्या ये दर-ओ-दीवार भी अब तो नहीं पहचानते मैं सफ़र से लौट कर भी अपने घर आया तो क्या बह गए सैलाब के धारों में जब सारे मकीं अब तुझे 'अकरम' ख़याल-ए-बाम-ओ-दर आया तो क्या