मैं अपने सूरज के साथ ज़िंदा रहूँगा तो ये ख़बर मिलेगी गुलाब किस शाख़ पर खिलेगा चराग़ की लौ कहाँ रुकेगी मैं ज़ीना-ए-ख़्वाब से उतर कर सहर तलक आ तो जाऊँ लेकिन ये शाम मुझ पर अयाँ न होगी ये शब मुझे रास्ता न देगी जो रंग मुझ में सँवर रहे थे वो शाम होते ही खो गए हैं जो शम्अ मेरे वजूद में जल रही है किस सुब्ह तक जलेगी सहर हुई तो मिरी थकन से निढाल आँखों के थामने को ये नूर किस सम्त में ढलेगा ये छाँव किस ओर से बढ़ेगी मैं इक निज़ाम-ए-कोहन के नर्ग़े में साँस ले कर भी सोचता हूँ कि सुब्ह कैसे तुलू'अ होगी कि शाम किस रंग में ढलेगी मैं अपने हम-राह एक दुनिया को ले के जब चल पड़ूँगा 'साजिद' ज़मीन पानी के नर्म धारे पे क्या यूँही घूमती रहेगी