मैं अपने वास्ते रस्ता नया निकालता हूँ दलील-ए-शे'र में थोड़ा सा कश्फ़ डालता हूँ बहुत सताया हुआ हूँ लईम दुनिया का सख़ी हूँ दिल की पुरानी ख़लिश निकालता हूँ ज़माना क्या है कभी मन की मौज में आऊँ तो नोक-ए-नक़्श पे अपनी उसे उछालता हूँ ये मेरा कुंज-ए-मकाँ मेरा क़स्र-ए-आली है मैं अपना सिक्का-ए-राएज यहीं पे ढालता हूँ मिरी ग़ज़ल में ज़न-ओ-मर्द जैसे बाहम हों इसे जलालता हूँ फिर इसे जमालता हूँ ज़रा पढ़ें तो मिरी इख़्तियार में न रहें ये नौनिहाल जिन्हें मुश्किलों से पालता हूँ