मैं अपने जिस्म से बाहर खड़ा हूँ ख़ुद अपने आप ही को ढूँढता हूँ मैं किस की गूँज हूँ किस की सदा हूँ ये अक्सर सोचता हूँ मैं कि क्या हूँ मैं संग-ए-राह हूँ या नक़्श-ए-पा हूँ कई पैरों तले रौंदा गया हूँ बहुत प्यासा हूँ साहिल पे खड़ा हूँ निगाहों से समुंदर नापता हूँ सुखाती है परों को धूप जिस पर मैं वो इक ज़र्द पत्ता बन गया हूँ पहन कर लफ़्ज़-ओ-मा'नी के लिबादे बहुत दिन से किताबों में पड़ा हूँ कई चेहरे नज़र आते हैं जिस में मैं वो टूटा हुआ सा आइना हूँ हर इक शय नींद में डूबी हुई है बस इक मैं ही यहाँ पर जागता हूँ