मैं अपने ख़्वाब में कुछ ख़ाक में मिलाती हूँ न जाने ख़ाक से ऐसा मैं क्या उठाती हूँ सितारे भर के मैं दामन में जब भी लाती हूँ तुम्हारी राह में फिर शौक़ से बिछाती हूँ कि प्यास देख रहे हैं ये तिश्ना-लब मेरे मैं अश्क पीती हूँ और तिश्नगी मिटाती हूँ ज़माने भर से वो मुझ को हसीन लगता है ज़माने भर से यही बात मैं छुपाती हूँ कभी कभी तो मुझे याद तक नहीं रहता कि चाँद जलता है शब में या दिल जलाती हूँ मैं लिख रही हूँ मोहब्बत पे एक नज़्म मगर कभी मैं लिखती हूँ उस को कभी मिटाती हूँ करो ये वा'दा कि मुझ से ख़फ़ा नहीं होना मैं मानती हूँ कि मैं बात को बढ़ाती हूँ फ़साने लिखती हूँ मैं ग़म-ज़दा मोहब्बत के मैं दर्द लिखती हूँ और दर्द ही कमाती हूँ