मैं अपनी जंग में तन-ए-तन्हा शरीक था दुश्मन के साथ सारा ज़माना शरीक था इंजीर ओ शीर बाँटता फिरता है शहर में कल तक जो मेरी नान-ए-जवीं का शरीक था मेरे ख़िलाफ़ है वो गवाही में पेश पेश मंसूबा-बंदियों में जो मेरा शरीक था मेरे क़िसास का भी हुआ है वो मुद्दई जो मेरे क़त्ल में पस-ए-पर्दा शरीक था कार-ए-जहाँ में भी वही मेरा शरीक है दुख-दर्द में जो लम्हा-ब-लम्हा शरीक था कश्ती के डूबने का मुझे ग़म नहीं मगर मौजों की साज़-बाज़ में दरिया शरीक था हद हो गई थी हम से मोहब्बत में कुफ़्र की जैसे ख़ुदा-न-ख़्वास्ता वो ला-शरीक था 'तिश्ना' ये तुझ को संग-ए-मलामत उसी के हैं पिंदार-ए-इश्क़ में जो अना का शरीक था