मैं बढ़ाता जा रहा था इस लिए दफ़्तर की बात बीच चौराहे में लाई जा रही थी घर की बात अब तो अपनी गुफ़्तुगू होती है उस से इस तरह जैसे इक मातहत से होती है इक अफ़सर की बात आलम-ए-मौजूद से बाहर निकल के सोचिए गुम्बद-ए-बे-दर की बातें और पस-ए-मंज़र की बात शाइ'री ने बात कहने की सुहूलत दी मुझे वर्ना मैं बाहर न ला पाता कभी अंदर की बात शाह और बेगम की बातें हो चुकी हों ख़त्म तो कीजिए हालात के मारे हुए जोकर की बात इज्तिमा-ए-ख़ास में उस का मुझे कहना 'अज़ीज़' मैं समझता हूँ ये है मेरे लिए आनर की बात