मैं बे-मिसाल था न कभी बा-कमाल था ख़ुद ही जवाब अपना था ख़ुद ही सवाल था उस को न हो सका मिरे दिल टूटने का ग़म साक़ी को अपने जाम का कितना ख़याल था चलता तो शहर-ए-हुस्न था सदियों का फ़ासला रुकता तो मंज़िलों का भी मुझ को ख़याल था मेरे लहू के क़तरे ही कुछ काम कर गए वर्ना गुलों पे पहले कब इतना जमाल था