मैं भी इंसाँ तू भी इंसाँ फ़र्क़ मगर इतना सा है मुझ को गहरी चोट लगी है तू ने पत्थर मारा है जो भी पाया इस दुनिया से भीक की सूरत पाया है सारी उम्र की महरूमी ने जब दामन फैलाया है इक क़तरा दरिया की दौलत इक क़तरा पलकों का धन चारों तरफ़ वजूद-ए-आदम आसमान से ऊँचा है मुझ को छू कर जिस्म पहन लेते हैं जिस के ख़द्द-ओ-ख़ाल वो हर दम मेरे साए से रूह बचा कर चलता है ग़ौर करो तो इन दोनों में ऐसा कोई फ़र्क़ नहीं ख़ुशियाँ भी जी कर देखी हैं ग़म भी छू कर देखा है इस बस्ती में ढूँडने निकला जब अपने-पन के साए जिस्म मिला बाहर से टूटा दिल अंदर से बिखरा है आते जाते थम जाती है अक्सर क़दमों की आहट अन्दर की जानिब ही घर का हर दरवाज़ा खुलता है उस से कोई बात न कीजे बस उस की सुनते रहिए जिस ने आँखें मूँद के जलते सूरज को झुठलाया है जाने क्या क्या पीना पड़ता है बरसातों को 'पर्वाज़' तब जा कर बंजर धरती पर कोई पर्बत उगता है