पढ़ने वाला कोई नहीं था सारे लिखने वाले थे हर उजले काग़ज़ पर कितने धब्बे काले काले थे हर दम बँधा रहा पैरों से सहरा का अंजान सफ़र हम ने उस को सूरज माना जिस के पाँव में छाले थे हम उस अनजानी बस्ती में कैसे पहचाने जाते तुम भी इतनी दूर खड़े थे जितनी दूर उजाले थे बस इक दाग़-ए-नाकामी था जो साँसों पर लिक्खा रहा वैसे तो बारिश ने अपने सब कपड़े धो डाले थे हम ने तो उड़ते देखा है सब को खुली फ़ज़ाओं में किस के पाँव में ज़ंजीरें थीं किन होंटों पर ताले थे इस का मतलब मैं घर में था और सोया था बिस्तर पर आवेज़ाँ खिड़की दरवाज़ों पर मकड़ी के जाले थे ऐसा होता बिन समझाए बात समझ में आ जाती नाहक़ नादानों ने चादर बाहर पाँव निकाले थे ग़ौर से देखो वहाँ कहीं से कुछ बादल गुज़रे होंगे आसमान की जानिब हम ने दरिया जहाँ उछाले थे शायद तुम ने देख लिया था इसी लिए महफ़ूज़ रहे वैसे तो 'पर्वाज़' सभी ने हम पर डोरे डाले थे